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बेटों को भी कुछ पराया होने की स्वतंत्रता दीजिये

vechar veethica
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कोई हम से अथवा घर से दूर चला जाये तो क्या वो पराया हो जाता है . छात्रावासों में पढ़ बच्चे अथवा घरों से दूर नौकरी कर रहे स्वजन क्या कभी पराये लगे ?अनेक वर्षों पूर्व सुदूर देशों में जा बसे भारतवंशी क्या आज भी अपने प्रतीत नहीं होते ? इस सृष्टि के नियमानुसार इस संसार को छोढ़ कर जाने वाले भी पराये नहीं होते तो फिर समाज के नियमानुसार एक घर से दूसरे घर जाने वाली बेटी केसे परायी हो सकती है .
वास्तव में समस्या बेटी के दूर जाने में नहीं , हमारी खोखली परम्पराओं और विकृत सोच में है . जो हम बेटी की परवरिश में भेदभाव करते हैं . जो हम विवाहोपरांत बेटी से संबंधों में शिथिलता ला देते हैं . जो हम दूसरे घर से आई बेटी को अपने घर में सम्मानपूर्वक अपनाते नहीं हैं . जो हम दूसरे घर से आई बेटी से अपने घर की परम्पराओं और रीत रिवाजों में अपने सम्पूर्ण अस्तित्व को मिटा देने की आपेक्षा करते हैं . यह कदापि उचित नहीं है . परन्तु एसा होता क्यों है ?
मेरे विचार से एसा तब होता है जब हम अपनी संतान को अपनी सम्पत्ति मानने लगते हैं . तब उसमे वर्गीकरण होता है . यह मेरा धन और यह पराया धन. क्या संतान हमारी संपत्ति हो सकती है ? कभी नहीं . यह संपत्ति है उस परमपिता परमेश्वर की जिसने उनको कुछ सुनिश्चित उद्देशों के लिए इस पृथ्वी पर भेजा है . माता पिता को उसने उनका ट्रस्टी नियुक्त किया है . ट्रस्टी का कर्त्तव्य मालिक की इच्छा के अनुसार उसकी संपत्ति का उपयोग करना होता है , न की अपने स्वार्थ के लिए . अतः माता पिता को भी अपनी संतान के हेतु उनके मालिक द्वारा निर्धारित सांसारिक और आध्यात्मिक उद्देशों की प्राप्ति में सहायक ही होना चाहिए . यदि माता पिता अपनी बेटी की परवरिश पराया धन मान कर करते हैं , और बेटे की परवरिश अपने भविष्य की सुरक्षा के द्रष्टिकोण से करते हैं ; तो यह दोनों ही बातें उस ईश्वर की अमानत में खयानत हैं . यह अपराध है . निसंदेह यह बेटे बेटियों का कर्तव्य है की वे अपने बूढ़े माँ बाप की जीवनपर्यंत सेवा करें और उनकी देख रेख करें , परन्तु माँ बाप को यह हक़ नहीं है की वे इस द्रष्टिकोर्ण से उनकी परवरिश करे . इस हेतु हमारी सांस्कृति में वानप्रस्थ आश्रम का प्रावधान है . यदि आज यह भोतिक रूप से संभव नहीं भी है तो भी उसकी भावना को आत्मसात रखना चाहिए .
इस अवसर पर मुझको हिंदी की महान लेखिका शिवानीजी के संस्मरण का एक वाक्य याद आरहा है , जिसने मुझको झंकझोर कर रख दिया था . उस संस्मरण में शिवानीजी अपनी बढ़ी बहन की पीढ़ा व्यक्त कर रही थीं , जो सम्भवता अपने बेटे के व्यव्हार से दुखित थीं . उस अवसर पर उन्होंने यह वाक्य बोला था , ‘ सुन शिवानी पता है , बेटे की नाल दो बार कटती है . पहली बार जन्म के बाद और दूसरी बार विवाह के बाद .’ पढ़ कर मेरी तन्द्रा के सब तार झनझना उठे . पुस्तक रख दी . निगाहें शून्य में टिक गयीं कल्पना में अनेक परचित अपरचित सासों के चेहरे सहमती में सर हिलाते चारो ओर घिर आए. परन्तु मेरा अंतर्मन इसको इस रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं था . यह ही तो द्वन्द था . मै सोचता रहा और सोचता रहा . चिंतन व्यक्तिनिष्ठ से निकल कर समिष्ठनिष्ठ हो गया . यहाँ पर मै स्पष्ट कर देना चाहता हूँ की शिवानीजी अथवा उनकी आदरणीय बहनजी पर कोई आक्षेप नहीं है क्यों की साहित्यकार का लेखन तो समाज का दर्पण होता है . मै तो केवल उनके माध्यम से समाज की सोच को रेखंकित करने का प्रयत्न कर रहा हूँ .
क्या केवल बेटे की नाल दोबारा कटती है , बेटी की नहीं कटती . विवाह तो उस का भी होता है . बेटे की दोबारा नाल कटने का मलाल है और बेटी की दोबारा नाल कटने की कोई चर्चा भी नहीं . जेसे बेटी की दोबारा नाल कटना स्वाभाविक है , अपरिहार्य है . बेटे की दोबारा नाल कटना अस्वाभाविक है , अपराध है . क्यों ? जब माता और पिता अपने अपने शरीर का एक अंश समर्पित करते हैं , तब मानवता की इकाई ‘मानव शिशु ‘ का निर्माण होता है और जब पहली बार उसकी नाल कटती है तब वो मानव इकाई स्वतंत्र रूप से अस्तित्व में आती है जो सम्पूर्ण रूप से न तो माँ का प्रतिरूप होती है और न ही बाप का . फिर जेसे जेसे उसका विकास होता है उसके व्यक्तित्व में परिवार के अन्य सदस्यों , समाज , मित्रों ,गुरुजनों आदि के विचारों, स्वभावों और आदतों आदि का समावेश होता जाता है . इतनी विभिन्ताओं से युक्त वोह व्यक्तित्व क्या कभी पराया महसूस हुआ ? नहीं न . उसके लिए आप का प्यार उसमे सदेव सुरक्षित रहा . चाहे वो बेटा था अथवा बेटी
इसही प्रकार जब दो परिवार अपने अपने एक अंश समर्पित करते हैं तब समाज की इकाई एक नये ‘ परिवार’ का निर्माण होता है . अर्थात जब एक बेटे और एक बेटी की दोबारा नाल कटती है , मतलब विवाह होता है तब समाज की एक इकाई ‘ परिवार ‘ स्वतंत्र रूप से अस्तित्व में आती है . जेसे जेसे इस परिवार का विकास होगा इसमें दोनों परिवारों से अलग विभिन्ताओं का आना स्वाभाविक है ,अवश्यशाम्भी है . परन्तु दुर्भाग्यवश अक्सर बेटा पक्ष इस परिवर्तन को स्वीकार नहीं कर पाता. वोह अपेक्षा करता है की बेटे के आचार व्यव्हार और सोच में कोई परिवर्तन न आए, और आने वाली बेटी अपने सम्पूर्ण अस्तित्व को विलीन कर उस परिवार के साथ एकरूप होजाए . वोह भूल जाते हैं कि एकरूपता यांत्रिकता की विवशता है और विविधता प्राक्रति की उपलब्धि . परिणामस्वरूप जब उस नव स्थापित परिवार को नवजात शिशु के समान दोनों परिवारों से सहयोग और सहायता मिलनी चाहिए वोह अनेक झंझावातों का सामना करता है , जिससे कुछ नवस्थापित परिवार कुंठित होजाते हैं , टूट जाते है , नष्ट हो जाते हैं . बेटियां परायेपन का निर्वासन झेलती हैं और बेटे अपनेपन की कारा में घुटन . प्राक्रति के नियम को स्वीकार कीजिये . बेटों को भी कुछ पराया होने की स्वतंत्रता दीजिये . डरिए मत . वो अनेक परिवर्तनों और विभिन्ताओं के बाद भी वैसे ही आप का अपना रहे गा ,जेसा वो बचपन में अनेक विभिन्ताओं के बाद भी आप का ही था . प्यार कभी भी प्रतिस्थपित नहीं होता . प्यार का सदेव विस्तार होता है . आप के बच्चों में किसी और के लिए प्यार कभी भी आप के प्यार की कीमत पर नहीं होगा . हरएक प्यार के लिए अलग अलग कोष सुरक्षित हैं . प्यार के किसी भी कोष को अपने दुराग्रह से सूखने मत दीजिये . अपनी सोच से विकृतियों और खोखली परम्पराओं का प्रदूष्ण हटाइए , आप पाए गे की हमारी सांस्कृति की गंगा अभी भी निर्मल है जिसमे न बेटे पराये हैं और न बेटियां परायी हैं

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