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एक नया अर्थशास्त्र चाहिए

vechar veethica
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ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में अपने देश के महान विद्वान् आचार्य चाणक्य ने अपने जिस ग्रन्थ में राजनीति के सिद्दांतों की व्याख्या की थी , कूटनीत के सूत्रों का निर्धारण किया था , शासन करने की कला समझाई थी , उसका नाम ‘अर्थशास्त्र ‘ है I राजनीति और अर्थशास्त्र का यह गहरा सम्बन्ध जितना उस युग में सच था , उतना ही आज के युग में सच है I अर्थशास्त्र और राजनीतिशास्त्र जिस प्रकार उस युग में मनुष्य और समाज की दशा और दिशा निर्धारित करते थे , उनकी वोह ही भूमिका आज के युग में भी प्रभावी है I
वर्तमान अर्थशास्त्र पश्चिम की औद्यौगिक क्रांति की देन है I अत: यह उद्योग केन्द्रित है I उद्योगों के कारण ही आधुनिक नगर आस्तित्व में आये I अत: यह अर्थशास्त्र नगर केन्द्रित है I इस अर्थशास्त्र को ही हमारे देश की प्रारंभिक कक्षायों से ले कर विश्वविद्यालय के स्तर तक पढ़ाया जाता है I हमारे देश के कर्णधार पश्चिम के हार्वर्ड , ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज सरीखे संस्थानों में इस अर्थशास्त्र का उच्च अध्ययन करते हैं और अपने देश में आ कर उसके आधार पर देश की आर्थिक नीतियाँ निर्धारित करते हैं , और संचालित करते हैं I देश उनसे समग्र समृधि की आपेक्षा करता है I क्या वोह आपेक्षाएं पूरी हो रही हैं ?
भारत गाँवो में बसता है I यहाँ की संस्कृति और परम्पराएँ ग्राम आधारित हैं I हमारा विकास का जो क्रम जंगलों से प्रारंभ हो कर गाँवो में फला फूला , उसे इस अर्थशास्त्र ने नगर की ओर धकेल दिया है I नगर से ही नागरिकता है I यह अर्थशास्त्र ही नहीं , भारत का संविधान और अन्य सभी व्यवस्थाएं नागरिकों के लिए ही हें I वास्तव में इस अर्थशास्त्र और राजनीति में ना गाँवो के लिए कुछ है और ना ही जंगलों के लिए I जंगल उजड रहे हैं I शोषित और वंचित जंगल वासी नक्सलवाद में जकड रहे हैं I गांवों का किसान अन्न उपजा कर भी भूखा है I कर्ज में डूबा आत्महत्याएं कर रहा है I गाँव बिखर रहे हैं I ग्रामवासी नगरों की ओर पलायन कर रहे है , जहाँ इस अर्थशास्त्र ने विकास का मायाजाल सजाया हुआ है I सभ्यता का सफ़र हमने जंगलों से प्रारंभ किया और गाँव होते हुए अब हम नगर में आगये I अब हम नगरवासी सभ्य कहलाते हैं , गाँव वाले गंवार , और जंगलवाले जंगली I यह बात दूसरी कि नगरों में सुंदर वस्त्र पहने जाते हैं और बलात्कार होते हैं , जंगलों में वस्त्र नहीं पहने जाते ,फिर भी बलात्कार नहीं होते I यह कैसा विकास , यह कैसी सभ्यता है ?
आज के अर्थशास्त्र में विकास को मापने का बहुचर्चित फार्मूला है ‘ G.D.P.’ I G.D.P. , हिंदी में बोलें तो ‘ सकल घरेलू उत्पाद ‘ I आईये इसको समझने का प्रयास करें I देश में उत्पादन के तीन मुख्य क्षेत्र हैं I ओद्योगिक क्षेत्र, कृषि क्षेत्र और सेवा क्षेत्र I अर्थात एक निश्चित अवधि में इन तीनो क्षेत्रों हुए कुल उत्पादन का योग ही जी. डी. पी. होना चाहिए I परन्तु क्या ऐसा ही है ? नहीं I क्यों ?
मान लीजिये एक रेफ्रिजरेटर का कारखाना एक निश्चित अवधि में १०० रेफ्रिजरेटर बनता है , और प्रति रेफ्रिजरेटर का मुल्य १०००० रूपये है I तब देश की जी. डी. पी. में दस लाख रूपये की ब्रद्धि हो जानी चाहिए I परन्तु मान लीजिये किसी कारणवश वोह रेफ्रिजरेटर बिक नहीं पाते I तब समय के अनुसार उनका मुल्य कम होता जायेगा I और ऐसा भी हो सकता है कि अंततः उनका मूल्य शून्य हो जाये I इससे यह सिद्ध होता है कि मात्र किसी वास्तु के उत्पादन से जी. डी. पी. नहीं बढ़ती है I जी. डी. पी. बढ़ती जब वोह वास्तु अथवा सेवा बिकती है और जितने में बिकती है I अब इस सिद्धांत का सामान्यीकरण करें तो कह सकते हैं कि जब धन का एक हाथ से दूसरे हाथ में अंतरण होता है , तब जी. डी. पी. बढ़ती है I धन का एक हाथ से दूसरे हाथ में अंतरण तब होता है जब कोई व्यक्ति किसी वास्तु अथवा सेवा का उपभोग करता है I अर्थात देश में जितना उपभोग बढ़ेगा , देश कि जी. डी. पी. भी उसी अनुपात में बढ़ेगी I
विकास का यह फार्मूला तो हमारे धर्म प्रधान देश के संयम आधारित आचरण की आपेक्षाओं के बिलकुल प्रतिकूल है I अर्थव्यवस्था के साथ बाजार है , विज्ञानं है , प्रौद्योगिकी है और सरकार है I धर्म अकेला क्या कर लेगा ? सयंम आदि त्यागिये I खुल कर उपभोग करने का आमंत्रण देते हर प्रकार के बाजार प्रस्तुत हैं I उनका भरपूर उपयोग कीजिये I देश की जी. डी. पी. बढ़ेगी I विज्ञानं सुविधाओं के नाम पर नई नई आवश्कताएं सर्जित करेगा I आप श्रम से विमुख हो जायेगे I कोई चिंता नहीं I इसके लिए जिम प्रस्तुत है I वहां जाईये धन का अंतरण कीजिये I देश की जी. डी. पी. बढ़ेगी I विज्ञापनों का इंद्रजाल अवतरित होगा I वोह आप को ललचाएगा , विवश करेगा , ” They will make you buy a thing which is not required and by the money which you do not have ” .
परिवार त्याग और तप की नींव पर आधारित हैं I उपभोग बढ़ता है तो स्वार्थ भी बढ़ता है I स्वार्थ बढ़ा तो सयुक्त परिवार टूट गये I एकल परिवार टूट रहे हैं I ‘ Live-in relation ‘ प्रारंभ हो रहा है I पहले परिवार के कामों को सब सदस्य मिल जुल कर करते थे , तब आप पिछड़े कहलाते थे I अब अपना स्तर उठाइए I अब उन सब कार्यों के लिए अलग अलग सेवक सेविकाएँ रखिये और फिर उनको वेतन देने के लिए घर के अन्य सदस्य को भी नौकरी करने भेजिए I जी. डी. पी. बहुत तेजी से बढ़ेगी
उपभोग से उपभोग की आकांक्षा कभी शांत नहीं होती वरन और बढ़ती है अत्यधिक उपभोग की आकांक्षा से सदाचार , सद्व्यवहार .नैतिकता आदि के सब बंधन ध्वस्त हो जाते हैं I संबंधों की मर्यादाएं तार तार हो जाती हैं I फिर समाज में जन्म लेता है शोषण I व्यक्ति द्वारा व्यक्ति का शोषण I अपनों का शोषण , परायों का शोषण I धन से शोषण , बल से शोषण I व्यवस्था द्वारा जर , जंगल , जमीन का शोषण I परिणाम – समाज , नदी , वायु , आकाश में प्रदुषण I यह विकास शोषण पर आधारित है I शोषण से प्रकृति और समाज में असंतुलन उत्पन होता है I प्रकृति के असंतुलन से प्राकृतिक आपदायों का जन्म होता है वहीं समाज में असंतुलन से समाज संचितों और वंचितों में बंट जाता है I उनके मध्य सुनिश्चित संघर्ष से हिंसा और अपराधों का जन्म होता है I प्रमाण है , जो जितना विकसित देश , उसमें उतनी अधिक हिंसा और अपराध I अब हम भी विकास कर रहे हैं I सरकार इसमें सहयोग देती है I अर्थव्यवस्था को बाजार के हवाले कर देती है I समाज बाजार में परवर्तित हो जाता है , जिसमें व्यक्ति की औकात या तो वास्तु की होती है या खरीदार की I रिश्वत , घोटालों , भ्रस्टाचार के दम पर यह अर्थव्यस्था सरपट भाग रही है I पर यह हमको ले कहाँ जा रही है ?
इस अर्थव्यवस्था से ‘ भारत निर्माण ‘ तो नहीं हो रहा है I यदि हो रहा है तो ‘ इण्डिया निर्माण ‘ हो रहा है I इण्डिया जो विकसित हो कर यूरोप अथवा अमेरिका का प्रतिरूप बनेगा I जिसमे न भारत की सांस्कृति होगी , न संस्कार और न ही परम्पराएँ I
उपभोग की चरम परिणति का इतिहास राजा ययाति के द्रष्टान्त के रूप में हमको ज्ञात है I योरोप और अमेरिका में प्रतिदिन गहराता मंदी का संकट ; ग्रीस , साइप्रस , इटली आदि अनेकों योरोपीय देशों की डावांडोल माली हालत ; विकासशील देशों के बाजार प्राप्त करने की तीव्र उत्सुकता ; इस उपभोग आधारित अर्थव्यस्था के भविष्य की ओर संकेत कर रहे हैं I फिर भी हम आंख बंद कर इस दौड में सम्मलित हैं I क्यों ?
हमको अब ईमानदारी से यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि विकास कि यह राह कम से कम हमारे देश के अनकूल नहीं है I हमको एक नई राह खोजनी होगी . हमको एक नया अर्थशास्त्र चहिये I इसके लिए हमको पीछे जा कर देखना होगा कि , ‘राह भूले थे कहाँ से हम ‘ I
हम सदेव से गरीब और पिछडे देश नहीं थे I कभी हमारा भी स्वर्णिम काल था I जी हाँ . मैं सामंती कृषि व्यवस्था के पूर्व के भारत की बात कर रहा हूँ I तब ९०% भारत गांवों में ही बसता था I तब सब गांवों समृद्ध और ग्रामवासी खुशहाल थे I हमारी समृधि और खुशहाली के चर्चे हिमालये पार चीन , ईरान ,तुरान होते हुए यूरोप तक पहुच गये थे I पुर्तगाली , स्पेनी , डूच और अंग्रेज आदि इस समृधि से ही आकर्षित हो कर , सात समुद्र पार कर यहाँ आये थे I वोह यहाँ ऐसे ही नहीं आये थे , वोह हमारी समृधि लूटने आये थे I उन्हों ने हमारे देश को लूट कर गरीब और पिछडा बना दिया I
अतः अब आवश्यकता है कि कोई राष्ट्रवादी अर्थशास्त्री अथवा अर्थशास्त्र का राष्ट्रवादी शोधार्थी हमारे उस स्वर्णिम भारत कि कृषि आधारित अर्थव्यवस्था पर शोध करे , आचार्य चाणक्य के अर्थशास्त्र का गहन अध्ययन करे और फिर अपने देश के लिए नये अर्थशास्त्र का निर्माण करे , जो ग्राम आधारित हो , जो कृषि आधारित हो I क्यों कि अभी भी भारत गावों में ही बसता है I हमको वोह नया अर्थशास्त्र चाहिए , जिसमे विज्ञानं , तकनीक और प्रद्योगिकी कि प्राथमिकतायें गांवों और गांवों कि आवश्यकताएं हों I नगर गांवों के लिए हों I वोह अर्थशास्त्र चाहिए जिसमे मानव श्रम का सम्मान हो , जिस में मनुष्य की मेघा का अभिनन्दन हो I वोह अर्थशास्त्र जिसमे संयम के साथ उपभोग की व्यवस्था हो I वोह अर्थशास्त्र जो शोषण पर नहीं पोषण पर आधारित हो I वोह अर्थशास्त्र जिसमे सबका सम्यक विकास संभव हो I वोह अर्थशास्त्र जिसमे विकास जी. डी. पी. से नहीं मनुष्य की खुशहाली से मापा जाये I वोह अर्थशास्त्र जिसमे भारत की सांस्कृति और अस्मिता न केवल सुरक्षित रहे , वरन और फले-फुले I
मुझको विश्वास है की ,यदि ऐसे अर्थशास्त्र का निर्माण हो पाया , तो यह निश्चित है कि भारत आर्थिक महाशक्ति बने या न बने , वोह एक खुशहाल देश अवश्य बनेगा , जिसमे हमारे ऋषियों कि यह वाणी सत्य हो कर गूंजेगी , कि

सर्वे भवन्तु सुखिना: ,
सर्वे सन्तु निरामया ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु ,
मा कश्चिद् दु:खभाग् भवेत् I I

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