Menu
blogid : 1178 postid : 56

धर्म और सम्प्रदाय

vechar veethica
vechar veethica
  • 31 Posts
  • 182 Comments

धर्म केवल धर्म होता है / धर्म का कोई नाम नहीं होता है / धर्म को जब कोई नाम दिया जाता है , तब वो सम्प्रदाय हो जाता है / सम्प्रदाय जिसका आकार , प्रकार , नियम , निषेध आदि निर्धारित होते हैं / हमारे यहाँ धर्म को सनातन कहा जाता है /यह किसी धर्म का नाम , अर्थात संज्ञा नहीं है / यह तो धर्म शब्द का विशेषण है / अर्थात वोह धर्म जो अनादि काल से है , और अनादि काल तक रहेगा / वोह धर्म जो इस पृथ्वी के किसी भी कोने में अवस्थित मानव मात्र के लिए कल भी सत्य था , आज भी सत्य है और कल भी सत्य रहेगा / वह ही तो सनातन होता है /सत्य , प्रेम , अहिंसा , दया , करुणा, ब्रहमचर्य आदि धर्म के वह तत्व हैं जो सम्प्रदायों की माला के प्रत्येक पुष्प में धागे की तरहे पिरोये हुए हैं /
किसी सम्प्रदाय के आस्तित्व में आने और बने रहने के तीन प्रमुख कारक हैं
१ – उस सम्प्रदाय का प्रवर्तक , जिस को पैगम्बर , मसीहा , संत सतगुरु आदि नामों से जाना जाता है / वस्तुतः उस प्रवर्तक अथवा उसकी शिक्षायों, उपदेशों के द्वारा ही उस संप्रदाय का प्रादुर्भाव होता है /
२ – उस सम्प्रदाय की पवित्र पुस्तक /
३ – उस सम्प्रदाय की दीक्षा / इसे भी अलग , अलग सम्प्रदायों में भिन्न भिन्न नामों से जाना जाता है / जैसे बप्तिस्मा , मंत्र प्राप्त करना ,अमृत छकना , कंठी लेना आदि आदि /

इस पृथ्वी पर समय समय पर आप्त पुरुष आये और उन्होंने मानवता के कल्याण के लिए देश , काल ,और परिस्थितियों के अनुसार भिन्न भिन्न सम्प्रदायों की स्थापना की / जिस प्रकार एक माली अलग अलग प्रकार के पौधों की सुरक्षा और विकास के लिए अलग अलग सुरक्षा उपाय करता है ,उसही प्रकार वे आप्त पुरुष उस काल विशेष , स्थान विशेष , और प्रवृत्ति विशेष के मनुष्यों के कल्याण और समुचित विकास के लिए कुछ सुनिश्चित नियम , निषेध और सिद्धांतों का निर्धारण करते हैं / इस कारण कोई सम्प्रदाय आस्तित्व में आता है /
भारत भूमि पर प्राचीन काल से अनेक सम्प्रदायों का प्रादुर्भाव होता रहा है / प्रत्येक सम्प्रदाय का उद्देश मनुष्य को धर्म के मार्ग पर प्रवृत्त करना ही रहा है / धर्म का उद्देश मनुष्य को आध्यात्मिक और भौतिक रूप से पूर्ण विकास को उपलब्ध कराना होता है / जब पौधा विकसित और पुष्ट हो जाता है , तब पौधे को सुरक्षा उपायों की आवश्यकता नहीं रहती , और हो सकता है तब वो सुरक्षा उपाय उसके आगे के विकास में बाधक बन जाएँ / इस लिए माली उन सुरक्षा उपायों को हटा लेता है / उसी प्रकार मनुष्य सम्प्रदाय विशेष के नियम , निषेध और सिद्धांतों का पालन करता हुआ धर्म को उपलब्ध हो जाता है , तब सम्प्रदाय उसके लिए गौढ़ हो जाता है / मनुष्य जब आध्यात्मिक और भौतिक रूप से पूर्ण विकसित हो कर सन्यास को प्राप्त करता है , तब वो सम्प्रदाय विशेष के नियम , निषेधों और सिद्धन्तों से पूर्णतया मुक्त हो जाता है / भारतीय दर्शन में यह ही धर्म और सम्प्रदाय का परस्पर सम्बन्ध है /
इस लिए ही हमारे उपनिषदों में कहा गया है कि

रुचिनां वैचित्र्ययाद्रजु कुटिल नाना पथ जुषाम् ।
नृणानेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव I I

अर्थात जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न स्त्रोतों से निकल कर समुद्र में मिल जाती हैं / उसी प्रकार हे प्रभो ! भिन्न भिन्न रूचि के अनुसार विभिन्न मार्गों द्वारा जाने वाले जन अंत में तुझ में ही मिल जाते हैं /
कालान्तर में भारत भूमि कुछ ऐसे सम्प्रदाय के अनुयायियों के सम्पर्क में आई , जिन सम्प्रदायों का जन्म भारत भूमि पर नहीं हुआ था / वह धर्म और सम्प्रदाय के भारतीय दर्शन से अनभिज्ञ थे / वह अपने सम्प्रदाय को ही एक मात्र धर्म मानते थे / वह अपने सम्प्रदाय को श्रेष्ठ और उसको ही ईश्वर प्राप्त करने का एक मात्र मार्ग मानते थे /
यह भारतीय दर्शन के प्रतिकूल है / अपने सम्प्रदाय के नियम सिद्धांतों का निष्ठां पूर्वक पालन करना साम्प्रदायिकता नहीं है , वरन अपने सम्प्रदाय को अन्यों से श्रेष्ठ मानना और उस को ही ईश्वर प्राप्त करने का एक मात्र मार्ग मानना , साम्प्रदायिकता है / अपना सम्प्रदाय और इष्ट निश्चित रूप से पूज्यनीय होने चाहिए , एवं अन्य समस्त सम्प्रदाय सम्मानीय होने चाहिए /
धर्म और सम्प्रदाय के इस परिपेक्ष में हम अपने अगले लेख में इस पर विचार करेंगे कि हिंदुत्व क्या है , और हिन्दू कौन है ?
तब तक आप भी इस पर चिंतन कीजिए /

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh