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बाजार भाषा को विस्तार देता है , और साहित्य गहराई | बाजार ने हिंदी को भी विस्तार दिया . पर इसके स्वरुप को भी परवर्तित किया | परिवर्तन स्रष्टि का नियम है , और भाषा भी उससे अछूती नहीं है | देश , काल और परिस्थितियाँ भाषा को भी प्रभावित करतीं हैं | देश परिवर्तन के कारण अवधी , भोजपुरी ,मगधी , दखनी आदि हिंदी बोलियों का जन्म हुआ | काल परिवर्तन के कारण पहले ब्रजभाषा हिंदी मानी जाती थी , और आज खड़ी बोली को हिंदी की मान्यता प्राप्त है | इसी प्रकार परिस्थितियों के परिवर्तन से कार्यालयी हिंदी , विधि और विज्ञानं की हिंदी के स्वरुप अलग अलग हैं | बाजार ने भी हिंदी को अपने अनकूल गढ़ कर अपनाया है , परन्तु बाजार का व्यव्हार हिंदी के प्रति अत्यंत निर्मम रहा है | समाचारपत्रों ने हिंदी शब्दों की वर्तनी और प्रयोग के साथ मनमाना व्यव्हार किया है | यह ठीक है कि फ़िल्म शोले में गब्बर सिंह से साहित्यिक हिंदी बुलवाना व्यावहारिक नहीं होता , परन्तु जब कल का ‘ दिल दीवाना ‘ , आज ‘ बत्तमीज दिल ‘ हो जाता है , तो स्पष्ट है कि बाजार ने हिंदी कि गरिमा घटाई है | इसका कारण है कि हिंदी साहित्यकारों ने बाजार की हिंदी को साहित्य का सहारा देने के स्थान पर अपने साहित्य को भी बाजार की होड़ में झोंक दिया | यदि प्रसून जोशी की तरह अन्य साहित्यकार भी बाजार में खड़े होकर हिंदी की अस्मिता की रक्षा करते , तो हिंदी भाषा आज इतना बेआबरू ना होती |
वह हिंदी जिसे गरीबों और अनपढ़ों की भाषा कहा जारहा है , वह ही हिंदी ; हिंदी की वास्तविक शक्ति है | फनीश्वरनाथ रेणु के ‘ मैला आंचल ‘ से , हिंदी का आंचल मैला नहीं , उजला हुआ है | इस ही भाषा में पल बढ़ कर लमही गाँव का धनपतराय , हिंदी का उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द बन गया | इस ही भाषा ने पोषित कर मिथला के तरौनी गाँव के वैद्धनाथ मिश्र को नागार्जुन बना कर अमर कर दिया | इस भाषा की ताकत को बहुत पहले भारतेन्दु हरिश्चंद ने पहचाना था | तब ही तो उनके लिए बाबा नागार्जुन ने लिखा :-
” हिंदी की है असली रीढ़ गंवारू बोली
यह उत्तम भावना तुम्हीं ने हममें घोली
बहुजन हित में ही दी लगा, तुमने निज प्रतिभा प्रखर
हे सरल लोक साहित्य के निर्माता पण्डित प्रवर
हे जनकवि सिरमौर सहज भाषा लिखवैया
तुम्हें नहीं पहचान सकेंगे यह बाबु – भइया ”
सही है कितने पढ़े लिखे बाबु भइया लोगों ने अनपढ़ कबीर और सूर पर शोध कर पी० एच० डी० की उपाधियाँ प्राप्त करीं , और आज महाविद्यालयों , विश्वविद्यालयों में नौकरियां प्राप्त कर हिंदी से रोजी रोटी कमा रहे हैं | पर उन्हों ने हिंदी को क्या दिया ? चंद गोष्ठियां , सेमिनार और कार्यशालाएं | पर इनसे हिंदी को क्या मिला ? शोध की जिज्ञासा नौकरी पा कर क्यों समाप्त होगयी ? वह उस राह पर आगे चल सकते थे , जिस पर चल कर अमृतलाल नागर ने ‘ मानस के हंस ‘ , और ‘ खंजन नयन ‘ जैसी अमर कृतियों की रचना करी | हिंदी को कुछ नया , अद्भुत , विलक्ष्ण देने की समस्त भावनाए , सुविधामय जीवन पाकर तिरोहित होगयीं | विष्णु प्रभाकर द्वारा वर्षों देश- विदेश भटक कर बांग्ला भाषा के विख्यात साहित्यकार शरतचंद चटर्जी के जीवन के नितांत अज्ञात पहलुओं को खोज कर ‘आवारा मसीहा ‘ जैसी अद्भुत कृति को जन्म देना भी उनको कोई प्रेरणा नहीं दे सका | फिर आरोप लगता है की हिंदी साहित्य के पाठक कम होरहे हैं | क्यों पढ़े कोई आज का हिंदी साहित्य ? क्या केवल मनोरंजन के लिए ? उच्चकोटि के साहित्य रचना के लिए सम्वेदनशीलता के साथ बौद्धिकता , सतत शोध प्रवृति और तपस्या भाव चाहिए | ‘ आवारा मसीहा ‘ में शरतचंद आधुनिक साहित्यकारों को संदेश देते दीखते हैं :-
” केवल कोमलपेल्व रसानुभूति ही नहीं , बुद्धि के लिए बलकारक भोजन उपलब्ध करना भी आधुनिक साहित्य का एक बड़ा काम है | इसके बाद जब तुमलोग लिखोगे तो तुम्हें भी बहुत पढ़ना पड़ेगा , बहुत सोचना पड़ेगा | ”
जी हाँ , बहुत पढ़ना पड़ेगा | भाषाओँ , विषयों ,क्षेत्रों की सीमाओं के पार जाकर पढ़ना पड़ेगा | जब हिंदीतर क्षेत्र की उत्कृष्ट परम्पराएँ , देश देशांतर की विविध संस्कृतियाँ , इतिहास , संगीत , विज्ञानं , प्राणिशास्त्र ,नरशास्त्र , नक्षत्र विज्ञानं जैसे अनेकों विषय हिंदी साहित्य की रचनाओं में समाविष्ट होंगे , तब हिंदी पाठकों की बौद्धिक भूख का भोजन उपलब्ध होगा | तब हिंदी के पाठकों की संख्या बढ़ेगी |
हिंदी तो आज इन बाबु भइया लोगों के हाथ पड़ कर गरीब हुई है | वस्तुत: जिनको आज हम अनपढ़ कह रहे हैं , वह निरक्षर होसकते हैं पर अनपढ़ कतई नहीं | उनके पास परम्पराओं से प्राप्त ज्ञान का अथाह भंडार है | उनको साक्षर बनाइए | उनके हाथ में कलम दीजिये | फिर देखिएगा , उनके मध्य से निकलेगी कलम के सिपाहियों की फौज | उनके मध्य से फिर निकलेगे नागार्जुन , रेणु और घाघ | हिंदी में तब अनंत विस्तार होगा और अगाध गहराई | तब हिंदी वह विशाल सागर सी होगी , जिसपर हम सब गर्व करेंगे |
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