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प्रजातंत्र और अधिनायकवाद की युगलबंदी

vechar veethica
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भारतीय राजनितिक परिदृश्य पर प्रजातंत्र और अधिनायकवाद की अभिनव युगलबंदी दृष्टिगोचर हो रही है | यहां हर पांच साल में चुनाव होते हैं | उनमें भाग लेने के लिए अनेक राष्ट्रिय और प्रांतीय राजनितिक दल हैं | परन्तु किसी भी राजनितिक दल में आंतरिक प्रजातंत्र नहीं है | प्रत्येक दल एक अधिनायकवादी चेहरे के सहारे राजनीति में अपनी भूमिका अदा कर रहा है | वह अधिनायकवादी चेहरा ही उस पार्टी का पर्याय है | प्रजातंत्र के नाम पर चंद एक पार्टी में ही किसी सामान्य जन को यह चेहरा बनने का अवसर प्राप्त होता है | अधिकांश पार्टियों में तो यह चेहरा भी वंशानुगत उत्तराधिकारियों के लिए आरक्षित हो गया है | प्रजातंत्र के नाम पर ही देश की जनता को हर पांच साल में , स्वयं पर शासन करने के लिए ,एक नया अधिनायक चुनने का अवसर प्राप्त होता है | यह हमारे प्रजातंत्र की विलक्षणता है | यहां अधिनायकवाद खंड – खंड तो हुआ है , परन्तु समाप्त नहीं हुआ है | यहां पर अधिनायकवाद और प्रजातंत्र का सहअस्तित्व वर्तमान परिस्थितियों का परिणाम है और वर्तमान परिस्थितियों में सार्थक भी है | भारत की जनता अभी प्रजातंत्र में पूरी तरह दीक्षित नहीं हुयी है | अनेक ऐतिहासिक करणों से वह अधिनायकवाद का सम्मान करती है | इसी कारण पुराने राजघरानों के वंशज बिना कुछ करे भी चुनाव जीतते रहते हैं | इसके अतिरिक्त अनेक अवांछनीय व्यक्ति भी अपने क्षेत्र में अपनी दबंग छवि बनाते हैं और जनता की इस मनोवृति का लाभ उठा कर निर्वाचित होते रहते हैं | वस्तुतः यहां प्रजातंत्र और अधिनायकवाद एक दूसरे को संतुलित कर रहे हैं | प्रजातंत्र के घेरे में अधिनायकवाद खतरनाक होने की सीमा तक उन्मुक्त नहीं हो पाता , और विखंडित अधिनायकवाद के सहारे भारत में प्रजातंत्र अभी तक सुरक्षित है |
अधिनायकवाद को तानाशाही के नाम से भी जाना जाता है और विभिन्न ऐतिहासिक कारणों से इसे निरंकुशता , अत्याचार , भेद-भाव , क्रूरता , निर्ममता आदि विशेषणों से विभूषित किया जाता है | परन्तु यह सर्वदा सत्य नहीं है | राजनीती शास्त्र के विद्यार्थी जानते हैं कि एक अच्छे तानाशाह का शासन ही सर्वश्रेठ शासन होता है | अच्छा और तानाशाह शब्द विरोधाभासी प्रतीत हो सकते है , परन्तु इतिहास में अनेक सर्वशक्तिमान शासक हुए हैं और उनका शासन जनता के लिए अत्यंत कल्याणकारी रहा है | इसलिए यह कहना कि तानाशाही सदैव निंदनीय है ; उचित नहीं है |
विगत लोकसभा के चुनाव परिणामोपरांत कुछ मित्रों को तानाशाही कि चिंता अधिक सताने लगी है | उनका विचार है कि इसके पश्चात विधान सभाओं कि विजय से सत्ता कि शक्तियां एक व्यक्ति में संचित हो जायेंगीं , जिससे वह निरंकुश तानाशाह बन जाये गा | वह मित्र भूल जाते हैं कि , सन १९४७ से लेकर सन १९६७ तक देश की लोकसभा , राज्यसभा और प्रांतों की अधिकांश विधानसभाओं में एक ही दल का शासन था और उस दल का एक ही अधिनायकवादी चेहरा था , तब तो कभी तानाशाही की चर्चा नहीं हुयी | आज मात्र लोकसभा के चुनाव परिणाम प्रतिपक्ष के पक्ष में होने से तानाशाही की आहट क्यों सुनाई देने लगी ? हमारे संविधान में शासन की शक्तियों का कार्यपालिका , विधायिका और न्यायपालिका के मध्य संतुलित विभाजन है , जिससे किसी के लिए भी निरकुंश तानाशाह बनना नितांत असम्भव है | हाँ यह ठीक है कि श्रीमती इन्द्रा गांधी ने एक बार संविधान की सीमाओं का अतिक्रमण करने की चेष्टा की थी , परन्तु वह उसमें सफल नहीं हो सकीं थीं और वह अब इतिहास है |
आज अनेक पूर्वाग्रही जन , पुराने घिसे पिटे मुहावरों को आदर्श वाक्यों के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं | जैसे सत्ता या शक्ति व्यक्ति को भ्रष्ट कर देती है और सम्पूर्ण सत्ता या शक्ति व्यक्ति को सम्पूर्ण रूप से भ्रष्ट कर देती है | अब तनिक विचार कीजिये कि , क्या बिना सत्ता एवं शक्ति के शासन सम्भव है ? शक्तिविहीन सत्ता के शासन का परिणाम तो देश पिछले दस वर्षों से भुगत रहा था | इसीलिए देश कि जनता ने इस बार स्पष्ट बहुमत देकर समर्थवान को शक्तिमान बनाकर शासन का अधिकार दिया है | वस्तुतः सत्ता व्यक्ति को भ्रष्ट नहीं करती , सत्ता खोने का भय व्यक्ति को भ्रष्ट करता है |
आजकल यदाकदा सबसे अधिक हास्यास्पद बात यह सुनने में आती है कि हिन्दू निरकुंश तानाशाही का पदार्पण हो रहा है | क्या कोई बताएगा कि इतिहास में कभी भी निरकुंश हिन्दू तानाशाही का आस्तित्व रहा है ? क्या हिन्दुइज्म में शिरियत के समान कोई शासन सहिंता रही है , जिसके आधार पर निरकुंश हिन्दू तानाशाही की परिकल्पना की जाती है | हिंदुत्व है क्या ? यह धर्म है ? सम्प्रदाय है ? क्या है ? हिदुत्व में तो एकेश्वरवादी भी हैं और बहुईश्वरवादी भी है | हिंदुत्व में मूर्तिपूजक भी हैं और मूर्तिपूजा के निषेधक भी हैं | विभिन्न विपरीत विचारधाराओं का सहिषुणतापूर्वक साथ – साथ रहने का नाम ही हिंदुत्व है | हिंदुत्व धर्मनिरपेक्षता का सकारात्मक स्वरुप है | इसके साथ निरकुशता और तानाशाही आदि शब्दों का प्रयोग अत्यंत हास्यास्पद है |
हाँ ! यह ठीक है की देश में एक नए शासन का सूत्रपात हुआ है | अतः प्रत्येक जन को सतर्क रहना चाहिए | किन्तु किसी को भी , विशेषकर बुद्धिजीवियों को , निरकुंश हिन्दू तानाशाही का अतिरंजित काल्पनिक चित्रण कर न तो स्वयं आतंकित होना चाहिए और न ही किसी अन्य को आतंकित करने का पाप करना चाहिए |

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