Menu
blogid : 1178 postid : 867976

कुछ बात है हममें जो हस्ती मिटती जा रही हमारी

vechar veethica
vechar veethica
  • 31 Posts
  • 182 Comments

किसी निराश हताश समाज को उसके गौरवपूर्ण अतीत का स्मरण करा कर उसका मनोबल बढ़ाना तो उचित है , परन्तु उस गौरवपूर्ण अतीत पर आत्ममुग्ध हो यथार्थ से विमुख हो जाना दुर्भाग्यपूर्ण है । भारतीय समाज जिसे कभी गुलामी की हताशा से उबारने के लिये बुद्धिजीवियों , कवियों , शायरों ने उसके अतीत का स्मरण कराया था , वह आज तक उस पर आत्ममुग्ध है और दशकों से उसी के गौरव गान में निमग्न है , कि
” कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी ,
सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-जहां हमारा ।”
वर्तमान के संदर्भ में क्या यह वास्तव में सच है ? कभी जो भारतीय सांस्कृति का विस्तार सुदूर पूर्व में जावा , सुमात्रा , बाली आदि द्वीपों तक था । कभी जो भारतीय सांस्कृति हिन्दचीन में अंकोरवाट के मंदिरों से चीन और जापान तक आध्यात्मिकता का संदेश देती थी , आज वहां कम्बोडिया , लाओस , वियतनाम , थाईलेंड , मलेशिया , सिंगापुर आदि राष्ट्र आस्तित्व में आ चुके हैं । सुदूर पूर्व के जावा , सुमात्रा , बाली आदि द्वीप अब इन्डोनेशिया राष्ट्र के अंग हैं । कल तक जो भारत भूमि कहलाती थी , आज उस पर अफगानिस्तान , पाकिस्तान , बांग्लादेश , म्यमार और श्रीलंका आदि देशों का निर्माण हो चुका है । हम वास्तव में सिमिटते जा रहे हैं । मिटते जा रहे हैं । पर फिर भी गा रहे हैं और मान रहे है कि
” कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी ”
हमने कभी सोचा ही नहीं कि हम क्या थे और क्या हो गए हैं ? क्यों हो गए और कैसे हो गए ? एक हजार वर्षों से अधिक की गुलामी का इतिहास , प्रमाण है कि युद्धों में हम विजयी कम और पराजित अधिक हुए हैं । हम अपनी हर पराजय का ठीकरा चन्द जयचन्द्रों एवं मीरजाफरों के सिर फोड़ कर संतुष्ट हो गये कि हम दूसरों से नहीं , अपनों से ही पराजित हुए हैं । हमने कभी सोचने की आवश्यकता ही नहीं समझी की जयचन्द्र और मीरजाफर सदैव हमारे ही पाले में क्यों पनपे ? दूसरों के पाले में हम कभी कोई मीरजाफर या जयचन्द्र क्यो नही खोज पाए । क्या हमारी पराजयों में गद्दारों की भूमिका के अतिरिक्त कुछ अन्य गंभीर कारण नहीं थे ?
इस संदर्भ में , कभी पढ़ा पानीपत के तीसरे युद्ध का एक प्रसंग याद आ रहा है । भयंकर रूप से उफनाती यमुना के एक ओर विशाल मराठा सेना निश्चिन्त थी , कि दूसरी ओर अहमदशाह अब्दाली का अपेक्षाकृत छोटा लश्कर यमुना पार कर आक्रमण नहीं कर सकता । वहीं अब्दाली आक्रमण के अवसर की सतत खोज में था । एक सुबह उसने यमुना पार मराठों की सेना में अनेक स्थानों से धुआं उठता देखा । उसने अपने भारतीय सूचना प्रदाता से कारण पूछा तो उसने बताया कि मराठा सेना में अलग – अलग जातियों के सैनिक अपने भोजन अलग – अलग बना रहे हैं । वे एक दूसरे का बनाया अथवा छुआ भोजन ग्रहण नहीं करते । यह सुन कर तब तक असमंजित अब्दाली विश्वास से भर उठा , और बोला जो कौम साथ भोजन कर नहीं सकती , वह कौम कभी साथ लड़ नहीं सकती । और जो कौम साथ लड़ नहीं सकती , वह कौम कभी जीत नहीं सकती । वही हुआ पानीपत के उस तीसरे युद्ध का परिणाम । मराठों की अत्यन्त शर्मनाक हार और हमारी गुलामी के एक और अध्याय का प्रारम्भ ।
क्या अब्दाली का वह कथन , हमारी निरंतर पराजयों के महत्वपूर्ण और गंभीर कारणों में से एक नहीं है ? और यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि इतिहास की इतनी ठोकरें खाने बाद भी यह जाति व्यवस्था , यह ऊँच – नीच , यह छुआ- छूत आज तक हमारे समाज की नस – नस में रची बसी है । किसी देश की शक्ति केवल सैनिकों से नहीं वरन् समग्र समाज की एकजुटता और सबलता से निर्धारित होती है । विघटित समाज न तो कभी सबल बन सकता है और न ही कभी समुचित विकास कर सकता है ।
अतः इस पर गंभीर चिन्तन नितान्त आपेक्षित है । क्या यह जाति व्यवस्था शास्त्र सम्मत है ? क्या यह वास्तव में हमारे तथाकथित धर्म का अंग है ? समस्त जगत , समस्त जड़ – चेतन , समस्त ब्रह्माण्ड के कल्याण का चिन्तन करने वाले हमारे अत्यन्त आध्यात्म सम्पन्न ऋषि-गण क्या इस प्रकार की संकीर्ण और विकृत व्यवस्था का निर्माण कर सकते थे ? तनिक विचार कीजिए यह जातियां हैं क्या ? स्वच्छकार , चर्मकार , स्वर्णकार , गडरिया , बहेलिया , तेली , मोची , माली , नाई , धोबी , कहार , निषाद , पनवाड़ी आदि आदि । यह सब व्यवसाय हैं । यह व्यवसाय श्रष्टि की रचना के साथ ब्रह्मा जी ने नहीं बनाए थे । यह तो समाज की आवश्यकता के अनुसार सृजित हुए थे , और मनुष्यों ने इन्हे अपनी आजीविका के लिए अपनाया था ।
निःसंदेह वर्ण-व्यवस्था शास्त्र सम्मत है । परन्तु वर्ण क्या हैं ? वर्ण न तो जाति हैं और न ही वंश । वर्ण का अर्थ है , रंग । किसी मनुष्य के व्यक्तित्व का रंग , अर्थात उस मनुष्य की मनोवृति । जैसे कोई एक व्यक्ति अन्तर्मुखी मनोवृति का हो सकता है , तो दूसरा वहिर्मुखी मनोवृति का । इसी प्रकार हमारे प्राचीन चिन्तक ऋषियों ने खोजा था कि मनुष्य की चार मौलिक मनोवृतियां हो सकती हैं । चिन्तनाभिमुख मनोवृति , संघर्षाभिमुख मनोवृति , अर्थाभिमुख मनोवृति एवं सेवाभिमुख मनोवृति । इन चारों मनोवृति धारियों के अपने-अपने महत्व और अपने-अपने सम्मान थे । ऋषियों की इस खोज का प्रयोजन समाज का कल्याण और समाज की व्यवस्था सुचारू रूप से चलाने का था । इन मनोवृतियों के आधार पर किसी को उच्च एवं किसी को तुच्छ नहीं निर्धारित किया जा सकता । ऋषियों ने यह भी घोषित किया है कि मनुष्य अपनी मौलिक मनोवृति के उपरान्त भी अपने सम्पूर्ण जीवन काल में एवं दैनिक जीवन में भी समय-समय पर अन्य मनोवृतियों में संक्रमण करता रहता है । इसी के साथ यह भी व्यवहारिक रूप से स्पष्ट है कि किसी एक मौलिक मनोवृति के मनुष्य की समस्त सन्ताने आवश्यक नहीं कि उसी की मनोवृति की हों । वे उससे भिन्न मनोवृतियों की भी हो सकती हैं । उन्ही के अनुसार उनका उपयोग समाज के लिये हितकारी है ,ऐसा ऋषियों ने सुनिश्चित किया था ।
कालान्तर में भ्रमवश , अथवा अज्ञानता वश , अथवा काल की स्वभाविक गति से , अथवा कुछ अन्य अज्ञात करणों से वर्णों के अर्थ अपने मौलिक अर्थों से भटक गये और समाज में जाति और वंश के रूप में स्वीकृति पा गये । इससे समाज की समस्त व्यवस्था अतार्किक , असंगत एवं अन्यायपूर्ण हो गयी । इसके साथ ही विभिन्न व्यवसायों को भी जाति और वंश की मान्यता प्राप्त होने से यह विभ्रम और गहरा हो गया । समाज विघटित दर विघटित होता चला गया । समाज में उच्च एवं निम्न , सवर्ण एवं दलित , संचित एवं वंचित ,स्पर्शय एवं अस्पर्शय वर्गों का निर्माण हो गया । उनके परस्पर संघर्षों एवं हितों के टकराव से अत्यन्त अन्यायपूर्ण और अमर्यादित परम्पराओं का निर्माण हुआ । उदार चरित्रानाम ऋषियों ने जो व्यवस्था सम्पूर्ण मानव जाति के लिये निर्धारित की थी वह जातियों और वंशों के संजाल में उलझ कर , सम्पूर्ण मानव समाज तो क्या समस्त हिन्दू समाज को भी यथोचित और न्यायपूर्ण ढ़ग से पारभाषित एवं समायोजित करने में विफल हो गयी ।
सबसे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि उत्तरवर्ती काल में वर्णों एवं व्यवसायों के मिथ्या अर्थों के परिपेक्ष्य में ही हमारे पवित्र धर्म-ग्रन्थों की व्याख्याएँ प्रस्तुत की गयीं । जिसके कारण आज उन पर मानवता विरोधी और असमानता एवं अन्याय के पोषक होने के आक्षेप लग रहे हैं ।
आज आवश्यकता इस बात की है कि हिन्दू समाज में इतिहास के किसी मोड़ पर घटित इस गलती को अत्यन्त ईमानदारी से और तहे दिल से स्वीकार किया जाए और इसके परिष्कार का प्राण प्रण से प्रयत्न किया जाए । आज केवल देशभक्ति के गीत गाने या इन्कलाब के नारे लगाने से देश का उत्थान नहीं होगा । आज की सबसे बड़ी देशभक्ति और सबसे बड़ा इन्कलाब यह ही है कि हम अपने समस्त दुराग्रहों , अहंकारों , संकीर्णताओं , मिथ्या श्रेष्ठताओं , और विकृत परम्पराओं को तलांजलि दे कर एक समतामूलक एवं समरसता पूर्ण समाज का निर्माण करें । यह सब हमे अत्यन्त त्वरित गति से और प्राथमिकता के आधार पर करना होगा । अब यह मानना कि समाज धीरे धीरे बदलेगा , घातक होगा , क्यों कि समय अत्यन्त तीव्र गति से बदल रहा है और यदि हम उसके अनुसार नहीं बदले तो जो आज हम हैं , वह भी कल न रहेंगे । हम और सिमिट जाएंगे , और मिट जाएंगे और केवल गाते ही रह जाएंगे कि
” कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-जहां हमारा ”

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply to Santlal KarunCancel reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh